लेखनी कविता -भ्रम-बिधोंसवा का अंग -कबीर
भ्रम-बिधोंसवा का अंग -कबीर
जेती देखौं आत्मा, तेता सालिगराम ।
साधू प्रतषि देव हैं, नहीं पाथर सूं काम ॥1॥
जप तप दीसैं थोथरा, तीरथ ब्रत बेसास ।
सूवै सैंबल सेविया, यौं जग चल्या निरास ॥2॥
तीरथ तो सब बेलड़ी, सब जग मेल्या छाइ ।
'कबीर' मूल निकंदिया, कौंण हलाहल खाइ ॥3॥
मन मथुरा दिल द्वारिका, काया कासी जाणि ।
दसवां द्वारा देहुरा, तामैं जोति पिछाणि ॥4॥
'कबीर' दुनिया देहुरै, सीस नवांवण जाइ ।
हिरदा भीतर हरि बसै, तू ताही सौं ल्यौ लाइ ॥5॥